Monday, 27 August 2018

रक्षाबंधन : बंधन है या संकल्प है?

रक्षाबंधन के पर्व पर एक विशेष मंथन:
क्या रक्षाबंधन का पर्व केवल दो लोगों के परस्पर बंधन का द्योतक अथवा एक-दूसरे की रक्षा के लिए दिया जाने वाला सांकेतिक वचन है?
अथवा, क्या इसे समस्त मानव जाति के अस्तित्व की रक्षार्थ एक संकल्प के रूप में देखा जाना चाहिए?
इस विचार को तर्कपूर्ण, व्यापक एवं तथ्यात्मक ढंग से समझना होगा|
किसी एक के द्वारा दूसरे की रक्षा करने का वचन देने के विचार को महत्व देने के कारण इस त्यौहार का पूरा महात्म्य समाप्त हो जाता है| स्त्रीजाति के द्वारा पुरुषजाति के हाथों में राखी बाँधना और पुरुषजाति के द्वारा स्त्रीजाति को उपहार दिया जाना एक प्रकार का वचन है, जो दोनों ओर से दिया जाता है| परन्तु इसमें किसी एक के द्वारा दूसरे की रक्षा किए जाने के विचार को मान्यता दिए जाने के कारण ही दोनों में से एक को दूसरे की तुलना में कम या ज्यादा बलशाली होने का भ्रामक विचार अप्रत्यक्ष रूप से समाहित रहता है| इसके अतिरिक्त कई अन्य प्रकार की तर्कहीन बातों, घटनाओं अथवा काल्पनिक कथाओं को आधार बनाकर कहीं पर स्त्री को और कहीं पर पुरुष को अधिक शक्तिशाली सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है, ऐसे प्रयासों से केवल भ्रामक ही नहीं बल्कि विघटनकारी स्थितियां उत्पन्न हुई हैं|
मनुष्य द्वारा प्रतिपादित की गई सभी अवधारणाओं, नियमों व सिद्धांतों से प्रकृति के नियम सर्वदा ऊपर हैं और सदैव ऊपर रहेंगे| चालीस हज़ार वर्ष पहले पृथ्वी पर घटित हुए घटनाक्रम से यह बात प्रमाणित हुई है अथवा मनुष्य ने यह निष्कर्ष निकाल लिया है कि सृष्टि की व्यवस्था में मानव का स्थान अन्य प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ है| लेकिन इससे न तो इस बात की पुष्टि होती है कि सृष्टि के पूर्वार्द्ध में भी ऐसा रहा हो और न ही उत्तरार्द्ध में इस स्थिति के बने रहने की कोई गारंटी मिलती है| ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्रकृति के द्वारा स्त्री और पुरुष शरीरों की संरचना करने के पीछे यह प्रयोजन हो कि इनमें से एक को कम और दूसरे को अधिक बलशाली समझा जाएगा| यह केवल मनुष्य द्वारा की गई भ्रांत एवं त्रुटिपूर्ण व्याख्याओं और परिभाषाओं का प्रतिफल है|
शारीरिक व मानसिक क्षमता को आधार बनाकर नारी और पुरुष की सामर्थ्य में तुलना करना एक महान भूल है| सत्यता यह है कि सृष्टि की व्यवस्था में स्त्री और पुरुष, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं| दोनों का पूरक होना मानवीय प्रजाति की उत्तरजीविता के लिए अनिवार्य ही नहीं अपितु अपरिहार्य है| दुर्भाग्य की बात तो यह है कि सृष्टि की व्यवस्था में स्वयं को सर्वश्रेष्ठ स्थान पर स्थापित करने अथवा ऐसा मानने वाली मानवजाति समाज में स्वयं के द्वारा फैलाई गई तर्कहीन अवधारणाओं, पौराणिक कथाओं और उनकी मूर्खतापूर्ण व्याख्याओं में उलझकर स्वयं अपने अस्तित्व को संकट में डालने पर तुली हुई है|
अतः रक्षाबंधन के पर्व पर स्त्री और पुरुष, दोनों के द्वारा सम्पूर्ण मानव जाति की रक्षा करने का उद्देश्य सामने रखकर अनंत काल तक दूसरे की रक्षा करने का संकल्प लिया जाना अत्यंत शुभ होगा| इसी से रक्षाबंधन के पर्व के माहात्म्य और गौरव में वृद्धि होगी| यह संकल्प केवल राखी बाँधने वाली कन्या अथवा स्त्री की ओर से ही नहीं बल्कि जिसके हाथों में वह बांधी जाती है, उसकी ओर से भी लिया जाना चाहिए|
सभी मित्रों, बंधुओं एवं विचारशील सज्जनों को सपरिवार रक्षाबंधन के पर्व की अनेकानेक शुभकामनाएं!

क्या मनुष्य पशुता से पूर्णतः मुक्त हो चुका है?

ईश्वर की सृष्टि में मानवजाति शीर्ष पर है, और वही परम है
परन्तु प्रत्येक को अपना मानव होना स्वयं ही सिद्ध करना है
मानव अपनी बनाई हुई हर प्रकार की व्यवस्था से ऊपर है
अर्थात् वह समाज, वर्ण-व्यवस्था, जाति-उपजाति, पंथ-सम्प्रदाय, राज्य व सत्ता से भी ऊपर है
जीवनधारा शीर्ष से नीचे की ओर प्रवाहित हो रही है
अतः मानव सिद्ध होने के बाद आपके लिए एक संतान, नागरिक, पड़ोसी, मित्र-शत्रु, गुरु-शिष्य, शिक्षक-शिक्षार्थी, पति-पत्नी, माता-पिता, सेवक-स्वामी, व्यापारी-ग्राहक, चिकित्सक-रोगी, इंजीनियर, वकील, लेखक, वैज्ञानिक सिद्ध होना अत्यंत सुगम हो जाएगा|
परन्तु अधिकांश लोगों की यात्रा विपरीत दिशा में चल रही है| स्वयं को मानव सिद्ध किए बगैर वे स्वयं के द्वारा गढ़े गए विभिन्न पदों और स्थितियों पर आसीन हो जाते हैं और अपनी मानवता को ही भूल जाते हैं| चूंकि इनकी यात्रा श्रेष्ठता से निम्नता की ओर है इसीलिए धीरे-धीरे पशुता की ओर अग्रसर हो रहे हैं|
पशुता क्या है?
किसी प्राणी के पशु होने का प्रमाण केवल यही नहीं है कि उसके पास चार पैर हों, एक पूँछ हो, बड़े-बड़े दांत हों, सिर पर सींग हों, चीख कर या मौन संकेतों के माध्यम से संवाद करता हो| इन सबके अतिरिक्त भी कई प्रकार के सूचक हैं: झुण्ड (समूह) बनाकर रहना, समूह की शक्ति को आधार बनाकर दूसरों का शोषण करना, छीनना-झपटना, लोभ व लालच करना, सामग्री का अनावश्यक संग्रह करना, भय अथवा क्रोध के कारण दूसरों को क्षति पहुंचाना, अज्ञानता अथवा क्रोध के वश में स्वयं को क्षतिग्रस्त करना, अपने से शक्तिहीन प्राणियों पर अत्याचार करना, किसी की क्रिया के समतुल्य प्रतिक्रिया करना, दूसरों का अन्धानुकरण करना, संवेगी पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहना तथा अनेक प्रकार के यंत्रचालित व संवेगात्मक (Instinctive) कृत्य करना  – इत्यादि विभिन्न प्रकार की पशुवत् क्रियाएं हैं|
यह बात प्रमाणित है कि (मनुष्य के द्वारा प्रशिक्षित किए गए अथवा उसका अनुकरण करने वाले प्राणियों को छोड़कर) पशुओं ने निश्चित रूप से मनुष्य से अपना आचरण नहीं सीखा है| तो क्या मनुष्य ने इस प्रकार का आचरण पशुओं से सीख लिया है? वैसे भी दूसरों के आचरण को अपने जीवन में उतारने या उनका अनुगमन करने की प्रवृत्ति और योग्यता तो केवल मनुष्य में ही विद्यमान है| ऐसा प्रतीत होता है कि या तो मनुष्य अभी तक पशुवत् (स्वभावजनित) आचरण से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है अथवा उसने अपने आदि (नैसर्गिक) स्वभाव को पुनः ग्रहण कर लिया है और उसके अनुसार आचरण करने लगा है|
मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग व श्रेष्ठ सिद्ध करने वाले प्रमुख लक्षण हैं: उसकी कल्पना शक्ति तथा तर्क की सहायता से अपनी कल्पनाओं को प्रमाणित करने की योग्यता|
मनुष्यता का अति महत्वपूर्ण लक्षण है: अपने वर्तमान स्वरुप से ऊपर उठने तथा उन्नत स्वरुप में अभिव्यक्त होने की प्रवृत्ति, उत्कंठा एवं क्षमता
चिन्तन करने योग्य बात यह है कि यदि कोई मनुष्य इन अद्वितीय एवं श्रेष्ठ गुणों के होते हुए भी निरंतर स्वयं से निम्नतर योनियों के समतुल्य आचरण करता रहे और वैसा ही स्वभाव रखता हो तो उसे पशु से भिन्न कैसे माना जा सकता है?