Saturday 24 December 2022

हमारा चिंतन ही हमारी वास्तविकता है

 5 मूल्यवान पाठ जो जेम्स एलेन की पुस्तक, “As a Man Thinketh” सिखाती है:-

1) आपका चिंतन ही आपकी वास्तविकता गढ़ता है

आप वही हैं जो आप सोचते हैं या आपने कभी सोचा है.......अगर आप अपने आपको बदलना चाहते हैं तो उसकी शुरुआत अपने विचारों को बदलने से होगी....आदमी के क्रियाकलाप उसके विचारों के बीजों से पैदा होते हैं....सही विचारों का चुनाव और क्रियान्वयन आदमी को दिव्यता (Divinity) की ओर बढ़ाता है, जबकि गलत विचारों का चुनाव और क्रियान्वयन आदमी को पशुओं के स्तर से भी नीचे गिरा सकता है; शुभ विचारों और क्रियाकलापों का परिणाम कभी अशुभ नहीं हो सकता; अशुभ विचार और क्रियाकलाप कभी अच्छे परिणाम नहीं ला सकते|

2) आपका मन एक बगीचे की तरह है

लेखक ने हमारे मन की तुलना बगीचे से की है| हम अपने मन को अपनी समझदारी से एक बगीचा बना सकते हैं अथवा उसे एक जंगल बनने के लिए छोड़ सकते हैं| यदि हम अपने बगीचे में सुन्दर फूलों के बीज नहीं बोएंगे तो उसमें अनुपयोगी घासफूस (Weeds) स्वतः ही उग आएगी|

जिस तरह एक माली बगीचे से निरर्थक पौधों को हटाता रहता है, उसी प्रकार हर आदमी का दायित्व है कि वह अच्छे बीज बोने और उनकी देखभाल करने के साथ-साथ अपने मन की बगिया को अनावश्यक विचारों की घासफूस से भी मुक्त करता रहे| इससे जीवन अत्यंत सुन्दर और रोचक बन जाता है| लेकिन जब लोग इसकी विपरीत दिशा में चलते हैं, और मन में पैदा हुए असंगत एवं निरर्थक विचारों को पोषण देते हैं तो उनका जीवन जटिल होता चला जाता है|

3) विचार मानसिक रूप से ही नहीं अपितु शारीरिक रूप से भी प्रभावित करते हैं

आप क्या सोचते हैं और कैसे सोचते हैं – इसका न केवल आपके मानसिक स्तर पर अपितु शारीरिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है| शरीर आपके मन का सेवक है, और यह आपके मन के हर एक आदेश का पालन करता है, चाहे वह जान-बूझकर चुना गया हो या स्वचालित ढंग से अभिव्यक्त हुआ हो| लेखक तर्क देते हैं कि जब आदमी लगातार बीमारी के डर में जीता है, वह वास्तव में रोगी बन जाता है| इसलिए रोगी होना केवल शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक अवस्था भी है| चिंतन-प्रक्रिया मदद नहीं मिल सकती| विचार हमारी आयु को प्रभावित करते हैं| अगर आप एक क्षण के लिए रूक कर अपने आसपास के लोगों का अवलोकन करें, तो आपको उम्र के नौवें दशक (Nineties) में भी चेहरों पर चमक और मुस्कान लिए हुए लोग देखने को मिल सकते हैं| वहीं आपको ऐसे भी लोग भी मिलेंगे जिनके चेहरों पर उम्र के तीसरे दशक (Thirties) में ही अव्यवस्थित रेखाएं खिंची रहती हैं|

4) आपके हालात ने आपको नहीं गढ़ा है

अगर आप यह मानते हैं कि आप जीवन में कुछ इसलिए हासिल नहीं कर सकते कि आप एक अलग पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखते हैं या आपका वातावरण आपके अनुकूल नहीं है, तो मित्रवर, आप गलती पर हैं| परिस्थितियों ने आपको आकार नहीं दिया है अपितु आपके बाहरी वातावरण ने आपके विचारों की आतंरिक दुनिया का रुप धारण कर लिया है| परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हों, उन पर किस प्रकार प्रतिक्रिया देनी है – आप उसके लिए हमेशा स्वतंत्र हैं; और, सबसे उपयुक्त प्रतिक्रिया यह है कि अपने आपको उन बातों पर केन्द्रित (Focus) करें जिन पर आपका नियंत्रण है| जब आप खुद को उस जगह पर केन्द्रित करते हैं, और वहां सुधार करते हैं जहां पर आपका नियंत्रण है तो आप जीवन में विजयी होते हैं| चूंकि लोग अधिकतर परिस्थितियों में सुधार के लिए व्याकुल रहते हैं परन्तु अपने आप को बदलने में उनकी कोई रूचि होती, इसलिए वह परिस्थितियों के बंधन में पड़े रहते हैं|

5) कार्यकलाप और चिंतन एक साथ होने चाहिए

विचारों के सम्बन्ध में अनेक स्वावलंबन गुरुओं (Self-help Gurus) द्वारा उपदेश किया जाता है कि आपको वही उपलब्ध होगा जैसा कि आप सोचते हैं और जिस पर विश्वास करते हैं| इसी को आकर्षण के नियम के रूप में प्रस्तुत किया गया है और बहुत से लोगों ने इसे ग्रहण किया है|

जेम्स एलेन, जिन्हें स्वावलंबन अभियान (Self-help Movement) का अग्रदूत माना जाता है, का स्पष्ट मत है कि केवल विचारों का होना पर्याप्त नहीं है| विचार केवल प्रारंभ-बिंदु होते हैं; और, अगर आप सही क्रियाओं को अपने चिंतन के साथ सुसंगत (Harmonize) नहीं करते, तो आपको वह उपलब्धि नहीं मिल सकती जो आप पाना चाहते हैं| केवल मनोरथ पालने और उपलब्धियां मिलने की प्रतीक्षा करते रहने से आपको कोई सहयोग नहीं मिलेगा| आपको आगे आना होगा, गतिविधियाँ (Activities) करनी होंगी और आप जो कुछ पाना चाहते हैं उसे अर्जित करना होगा|

Tuesday 11 January 2022

स्वामी विवेकानंद – युवाओं के प्रेरणा-स्रोत के रूप में

 स्वामी विवेकानंद – युवाओं के प्रेरणा-स्रोत के रूप में

स्वामीजी ने किशोरों और युवाओं (नई पीढ़ी) को सबसे अधिक महत्वपूर्ण बताया है; उनका कहना था:

*              नौजवान आशावादी होते हैं, और वृद्ध निराशावादी|

*          तरुण के सामने अभी उसका सारा जीवन पड़ा है; जबकि वृद्ध को सदा शिकायत रहती है कि उसका समय निकल गया|

*              सबसे पहले हमारे नवयुवकों को बलशाली होना चाहिए|

*          “साहसी और निष्कपट बनो; उसके बाद जिस मार्ग पर चाहो, अपनी इच्छानुसार भक्तिपूर्वक अग्रसर होओ; निश्चित ही उस पूर्ण वस्तु को प्राप्त करने में सफल होओगे|”

*              तब तक शिक्षा ग्रहण करो जब तक तुम्हारा मुख ब्रह्मविद् के समान दिव्य भाव से चमक नहीं उठता|”

*              “Youth of India arise.  Brave, bold men, these are what we want. What we want is vigour in the blood, strength in the nerves, iron muscles and nerves of steel…”                            

(III. 278-279)

*              “Arise, awake, for your country needs this tremendous sacrifice. It is the young men that will do it. ‘The young, the energetic, the strong, the well-built, the intellectual’ – for them is the task.”

(III. 318)

*              “Do not be frightened. Awake, be up and doing. Do not stop till you have reached the goal.”

(II. 140)

*              “My children must be ready to jump into fire, if needed, to accomplish their work. Now work, work, work! We will stop and compare notes later on. Have patience, perseverance and purity.”

(V.61)

*              “India wants sacrifice of at least a thousand of her young men – men, mind and not brutes.”

(V.10)

*              “My faith is in the younger generation, the modern generation, out of them will come my workers. They will work out the whole problem, like lions.”             

                                                                                    (V. 223)

*              “My child, what I want is muscles of iron and nerves of steel, inside which dwells a mind of the same material as that of which the thunderbolt is made. Strength, manhood, क्षात्र-वीर्य+ब्रह्म-तेज.”         

(V. 117)

*              “Work unto death – I am with you, and when I am gone, my spirit will work for you. This life comes and goes – wealth, fame, enjoyments are only of a few days. It is better, for better to die on the field of duty, preaching the truth, than to die like a worldly worm.”     

(V. 114-115)

*              “Truth, purity, and unselfishness – wherever these are present, there is no power below or above the sun to crush the possessor thereof. Equipped with these, one individual is able to face the whole universe in opposition.”                                                                           

(IV. 279)

*              “Lay down your comforts, your pleasures, your names, fame or positions, nay, even your lives and make a bridge of human chains over which millions will cross the ocean of live.”      

(IV. 352)

स्वामी विवेकानंद - भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में

भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में स्वामी विवेकानंद के उद्गार

वेदांत:    स्वामीजी का उद्देश्य था – वेदांत को पुराने तर्क-वितर्क से निकालकर बोधगम्य और व्यावहारिक बनाना, और योग को जटिल शारीरिक क्रियाओं से निकालना तथा उसे वैज्ञानिक एवम् मनोवैज्ञानिक रूप देना| उन्होंने वेदांत को सन्यासियों तक सीमित नहीं रखा, वरन् सर्वत्र उसका प्रचार किया; उन्होंनें वेदांत को श्रेष्ठ माना, क्योंकि यह दर्शन (1) विशेष (Particular) को सामान्य (Universal) के द्वारा समझने का प्रयास करता है (2) एकता या सामंजस्य को अपना लक्ष्य मानता है (3) व्यक्तियों पर नहीं, बल्कि सिद्धांतों पर आधारित है; वेदांत मात्र इकाई का सिद्धांत नहीं है, वह भेद में अभेद की शिक्षा देता है; वेदांत बताता है कि भिन्न दिखाई पड़ने वाले रूपों के पीछे एक ही सत्ता है; जैसे जल ही कभी वर्फ के रूप में, कभी द्रव के रूप में, और कभी भाप के रूप में दीख पड़ता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म का ही ईश्वर, जीव और प्रकृति के रूप में अनुभव होता है| योगियों की गुप्त क्रियाओं और थियोसोफिस्टों के रहस्यवाद से वह चमत्कृत नहीं हुए; योग में उन्होंनें ज्ञानयोग को सर्वश्रेष्ठ माना और कहा कि “यदि धर्म बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो वह धर्म नहीं अंधविश्वास है|” उन्नीसवीं सदी के अन्य विचारकों की तरह स्वामी विवेकानंद को भी साइंस पर बड़ी श्रद्धा थी; उनका कहना था कि “धर्म साइंस है और साइंस धर्म है|”

कर्म:    विवेकानंद का मुख्य सन्देश है – कर्मठता; हिन्दू जाति में सदियों की राजनैतिक दासता के कारण आई भाग्यवादिता, निराशा और कायरता को स्वामीजी ने ललकारा और उपनिषदों के शब्दों में सन्देश दिया कि “उत्तिष्ठत, जाग्रथ, प्राप्य वरान्निबोधत|” (अर्थात् ‘उठो, जागो, और जब तक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक रुको मत’); उनके प्रतिनिधि विचार इस प्रकार से थे:-

बल:  (१) ‘अपने पैरों पर खड़े होओ और मनुष्य बनो|’

    (२) 'सबसे पहले हमारे नवयुवकों को बली होना चाहिए; धर्म बाद में आएगा; तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबॉल के माध्यम से स्वर्ग के अधिक समीप पहुंचोगे|’

     (३) ‘योग, यज्ञ, प्रणाम-दण्डवत, और जप-जाप आदि धर्म नहीं हैं; व वहीं तक अच्छे हैं, जहाँ तक इनसे सुन्दर और वीरतापूर्ण कार्य करने की प्रेरणा मिलती है|’

पाप: ‘वेदान्त ‘पाप’ की बात नहीं मानता; वह केवल भूल की बात स्वीकार करता है और उसके अनुसार तुम सबसे बड़ी भूल तब करते हो, जब तुम कहते हो, “मैं कमज़ोर हूँ”, “मैं पापी हूँ”, “मैं असहाय हूँ” आदि|’

सेवा: ‘दरिद्र, पीड़ित और आत्तों में शिव की पूजा करो|’

    ‘गंगातीर पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? क्या ये गरीब, दुखी और दुर्बल भगवान् नहीं हैं? इनकी पूजा क्यों नहीं करते?’

त्याग:  ‘महान कार्य महान त्याग से ही संपन्न होंगे.... इस जगत् की सृष्टि करने के लिए स्वयं विराट् पुरुष भगवान् को भी अपनी बलि देनी पड़ी; त्याग के बिना कोई भी पूरे ह्रदय से दूसरों के लिए कार्य नहीं कर सकता|’

धर्म: ‘धर्म का अर्थ है – ह्रदय के अन्तर्तम प्रदेश में सत्य की उपलब्धि; धर्म का अर्थ है – ईश्वर का संस्पर्श प्राप्त करना, इस तत्व की प्रतीति करना – उपलब्धि करना कि मैं आत्म-स्वरुप हूँ, और अनंत परमात्मा से मेरा युग-युग का अछेद्य सम्बन्ध है|”

भारतवर्ष के सम्बन्ध में: “यदि मनुष्य जाति के सारे इतिहास को देखें तो पायेंगे कि सारे संसार में भारत ही एक ऐसा देश है, जो अपनी सीमाओं के बाहर किसी दूसरे देश को परास्त करने नहीं निकला; जिसने दूसरे की संपत्ति को हथियाने की इच्छा नहीं की; उसने अपने हाथों कड़ी मेहनत करके धन एकत्र किया और दूसरे राष्ट्रों को प्रलोभन दिया कि वे आकर यहाँ लूट-मार करें|”

     “भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता; यह उस समय तक टिका रहेगा जब तक इसका धर्मभाव अक्षुण्ण रहेगा; जब तक राष्ट्र के लोग अपने धर्म का पूर्ण त्याग नहीं कर देंगे; पश्चिम में कोई साधारण मनुष्य अपना वंश किसी मध्यकालीन आततायी ‘बैरन’ से जोड़ने का यत्न करता है, जबकि भारत में एक सिंहासनरूढ़ सम्राट भी किसी अरण्यवासी, वल्कल्धारी, कंदमूल-फल खाने और ईश्वर से साक्षात्कार करने वाले ऋषि से अपनी वंश-परम्परा स्थापित करने का प्रयास करता है; और जब तक पवित्रता के ऊपर हमारी इस प्रकार गंभीर श्रद्धा रहेगी, तब तक भारत का विनाश नहीं होगा|”