Tuesday 11 January 2022

स्वामी विवेकानंद - भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में

भारतीय संस्कृति के महान प्रचारक के रूप में स्वामी विवेकानंद के उद्गार

वेदांत:    स्वामीजी का उद्देश्य था – वेदांत को पुराने तर्क-वितर्क से निकालकर बोधगम्य और व्यावहारिक बनाना, और योग को जटिल शारीरिक क्रियाओं से निकालना तथा उसे वैज्ञानिक एवम् मनोवैज्ञानिक रूप देना| उन्होंने वेदांत को सन्यासियों तक सीमित नहीं रखा, वरन् सर्वत्र उसका प्रचार किया; उन्होंनें वेदांत को श्रेष्ठ माना, क्योंकि यह दर्शन (1) विशेष (Particular) को सामान्य (Universal) के द्वारा समझने का प्रयास करता है (2) एकता या सामंजस्य को अपना लक्ष्य मानता है (3) व्यक्तियों पर नहीं, बल्कि सिद्धांतों पर आधारित है; वेदांत मात्र इकाई का सिद्धांत नहीं है, वह भेद में अभेद की शिक्षा देता है; वेदांत बताता है कि भिन्न दिखाई पड़ने वाले रूपों के पीछे एक ही सत्ता है; जैसे जल ही कभी वर्फ के रूप में, कभी द्रव के रूप में, और कभी भाप के रूप में दीख पड़ता है, उसी प्रकार एक ब्रह्म का ही ईश्वर, जीव और प्रकृति के रूप में अनुभव होता है| योगियों की गुप्त क्रियाओं और थियोसोफिस्टों के रहस्यवाद से वह चमत्कृत नहीं हुए; योग में उन्होंनें ज्ञानयोग को सर्वश्रेष्ठ माना और कहा कि “यदि धर्म बुद्धि की कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो वह धर्म नहीं अंधविश्वास है|” उन्नीसवीं सदी के अन्य विचारकों की तरह स्वामी विवेकानंद को भी साइंस पर बड़ी श्रद्धा थी; उनका कहना था कि “धर्म साइंस है और साइंस धर्म है|”

कर्म:    विवेकानंद का मुख्य सन्देश है – कर्मठता; हिन्दू जाति में सदियों की राजनैतिक दासता के कारण आई भाग्यवादिता, निराशा और कायरता को स्वामीजी ने ललकारा और उपनिषदों के शब्दों में सन्देश दिया कि “उत्तिष्ठत, जाग्रथ, प्राप्य वरान्निबोधत|” (अर्थात् ‘उठो, जागो, और जब तक ध्येय की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक रुको मत’); उनके प्रतिनिधि विचार इस प्रकार से थे:-

बल:  (१) ‘अपने पैरों पर खड़े होओ और मनुष्य बनो|’

    (२) 'सबसे पहले हमारे नवयुवकों को बली होना चाहिए; धर्म बाद में आएगा; तुम गीता के अध्ययन की अपेक्षा फुटबॉल के माध्यम से स्वर्ग के अधिक समीप पहुंचोगे|’

     (३) ‘योग, यज्ञ, प्रणाम-दण्डवत, और जप-जाप आदि धर्म नहीं हैं; व वहीं तक अच्छे हैं, जहाँ तक इनसे सुन्दर और वीरतापूर्ण कार्य करने की प्रेरणा मिलती है|’

पाप: ‘वेदान्त ‘पाप’ की बात नहीं मानता; वह केवल भूल की बात स्वीकार करता है और उसके अनुसार तुम सबसे बड़ी भूल तब करते हो, जब तुम कहते हो, “मैं कमज़ोर हूँ”, “मैं पापी हूँ”, “मैं असहाय हूँ” आदि|’

सेवा: ‘दरिद्र, पीड़ित और आत्तों में शिव की पूजा करो|’

    ‘गंगातीर पर कुआँ खोदने क्यों जाते हो? क्या ये गरीब, दुखी और दुर्बल भगवान् नहीं हैं? इनकी पूजा क्यों नहीं करते?’

त्याग:  ‘महान कार्य महान त्याग से ही संपन्न होंगे.... इस जगत् की सृष्टि करने के लिए स्वयं विराट् पुरुष भगवान् को भी अपनी बलि देनी पड़ी; त्याग के बिना कोई भी पूरे ह्रदय से दूसरों के लिए कार्य नहीं कर सकता|’

धर्म: ‘धर्म का अर्थ है – ह्रदय के अन्तर्तम प्रदेश में सत्य की उपलब्धि; धर्म का अर्थ है – ईश्वर का संस्पर्श प्राप्त करना, इस तत्व की प्रतीति करना – उपलब्धि करना कि मैं आत्म-स्वरुप हूँ, और अनंत परमात्मा से मेरा युग-युग का अछेद्य सम्बन्ध है|”

भारतवर्ष के सम्बन्ध में: “यदि मनुष्य जाति के सारे इतिहास को देखें तो पायेंगे कि सारे संसार में भारत ही एक ऐसा देश है, जो अपनी सीमाओं के बाहर किसी दूसरे देश को परास्त करने नहीं निकला; जिसने दूसरे की संपत्ति को हथियाने की इच्छा नहीं की; उसने अपने हाथों कड़ी मेहनत करके धन एकत्र किया और दूसरे राष्ट्रों को प्रलोभन दिया कि वे आकर यहाँ लूट-मार करें|”

     “भारतीय राष्ट्र कभी नष्ट नहीं हो सकता; यह उस समय तक टिका रहेगा जब तक इसका धर्मभाव अक्षुण्ण रहेगा; जब तक राष्ट्र के लोग अपने धर्म का पूर्ण त्याग नहीं कर देंगे; पश्चिम में कोई साधारण मनुष्य अपना वंश किसी मध्यकालीन आततायी ‘बैरन’ से जोड़ने का यत्न करता है, जबकि भारत में एक सिंहासनरूढ़ सम्राट भी किसी अरण्यवासी, वल्कल्धारी, कंदमूल-फल खाने और ईश्वर से साक्षात्कार करने वाले ऋषि से अपनी वंश-परम्परा स्थापित करने का प्रयास करता है; और जब तक पवित्रता के ऊपर हमारी इस प्रकार गंभीर श्रद्धा रहेगी, तब तक भारत का विनाश नहीं होगा|”

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