Friday 30 March 2018

कोई तो बाँधे बिल्ली के गले में घंटी


कोई तो बाँधे बिल्ली के गले में घंटी
हम बचपन से चूहों और बिल्ली के बीच संघर्ष की कहानी सुनते-सुनाते चले आ रहे हैं| यह कहानी युग-युगान्तर से इसी प्रकार चलती चली आ रही है... बिल्ली के आतंक से त्रस्त चूहे और मुक्त होने की उनकी छटपटाहट; किसी गुप्त स्थान पर इकट्ठे होकर समस्या-समाधान पर चिंतन-मंथन और तर्क-वितर्क; देश-काल-परिस्थितियाँ अलग-अलग, लेकिन समाधान वही एक, “बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए”; दुनिया देखते-देखते बूढ़े और निराश हो चुके चूहों का बगलें झांकना, एक दूसरे का मुंह ताकना और गर्दन नीची किये हुए एक-एक करके बैठक से खिसक जाना; कभी-कभी किसी युवा चूहे द्वारा कुछ करने का साहस दिखाने पर रूढ़िवादी सोच वाले चूहों द्वारा अपनी निराशा-भरी बातों से उसके मनोबल को नीचे पटक देना; अंत में बैठक का विसर्जन - बगैर कोई संकल्प लिए, बिना कोई कार्ययोजना बनाए|
परन्तु हर कहानी में कभी न कभी एक मोड़ आता है जब कहानी के पात्र अनिर्णय की स्थिति से बाहर निकलकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं| बिल्ली और चूहों की इस कहानी में ऐसा ही मोड़ उस दिन आया जब चूहों की बैठक फिर से अनिर्णय की स्थिति में पहुँचकर लगभग विसर्जित होने को थी, लेकिन तभी पीछे बैठकर बूढ़े चूहों की निराशाजनक बातें सुन रहा एक युवा चूहा बीच में कूदकर बोला, “मैं लेता हूँ ज़िम्मा, बिल्ली के गले में घंटी बाँधने का|” बैठक में सन्नाटा पसर गया|
बूढ़े चूहों ने बड़ी हैरानी से उस युवा चूहे की ओर देखा
; उन्ही में से एक ने हँसते हुए उलाहना दिया, “जवानी का जोश है, इसलिए हवा में उड़ रहा है, वरना जो काम सदियों से कोई नहीं कर पाया, उसे ये कल का बच्चा करेगा!इस पर सबने ठहाका लगाया, मानों उनके ठहाके से ही बिल्ली के आतंक से मुक्ति मिलने वाली हो| लेकिन वह युवा चूहा मन में कुछ कर दिखाने का संकल्प लेकर अपने एक साथी चूहे के साथ तेज़ी से वहाँ से निकल गया| उन दोनों ने बाहर की दुनिया देखी थी| एक केमिस्ट की दुकान पर उनका आना-जाना था, रात होने पर दोनों सीधे वहाँ पहुँचे और एक डिब्बे में से नींद की गोलियों का एक पत्ता निकालकर ले आए; उन्होनें कुछ गोलियां निकालकर बिल्ली के पीने के लिए रखे हुए दूध में डाल दीं| उस दूध को पीते ही बिल्ली को नींद आ गयी| सदियों से जिस घंटी को बूढ़े चूहों ने सहेजकर रखा था, उसे आज दो युवा चूहों ने मिलकर बिल्ली के गले में बाँध दिया|
यह कहानी हम मनुष्यों की ज़िन्दगी से बहुत मेल खाती है... समाज की चिंताजनक स्थिति और रूढ़िवादी ढर्रे पर चलने वाली चर्चाएं; किसी निष्कर्ष पर पहुँचे बिना बैठक का विसर्जित हो जाना अथवा निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद एक ठोस योजना तैयार न कर पाना; यदि योजना बन जाए, तो उसकी जिम्मेदारी उठाने वाले कन्धों का अभाव; अगर कोई उठकर साहस दिखाए तो उसकी राह में रूढ़िवादी सोच व निराशाजनक अनुभवों के कांटे बिखेर दिया जाना| अब समय आ गया है कि मनुष्यों की कहानी में भी एक मोड़ आना चाहिए ताकि इस थकी हुई निराश मानसिकता पर विराम लगाते हुए कोई गौतम, नानक, विवेकानंद, दयानंद, भगतसिंह, शिवाजी, लक्ष्मीबाई, आज़ाद, सुभाष सरीखा उठकर खड़ा हो और कहे, “मैं लेता हूँ जिम्मेदारी!

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